हवा में उड़ते हुए लड़ाकू विमान ईंधन कैसे भरवाते हैं

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आखिर हवा में फ्यूल भरने की जरूरत ही क्या है?

फाइटर प्लेन को दुनिया में इंजीनियरिंग का नायाब नमूना माना जाता है. ये बेहत ताकतवर होने के साथ ही बला के फुर्तीले होते हैं. इस संतुलन को कायम करने के लिए इनके साइज और शेप को खास तरह से गढ़ा जाता है. ऐसे में इनकी फ्यूल ले जाने की क्षमता सीमित होती है. नतीजा – इनकी पहुंच सीमित हो जाती है. क्योंकि आसमान में पेट्रोल पंप तो होता नहीं है, इसीलिए इन्हें बार बार ईंधन के लिए उतरना पड़ता है. इसीलिए एक समाधान की ज़रूरत थी, जिससे लड़ाकू विमान हवा में ही ईंधन भर पाए.

एक दूसरी वजह भी है. किसी भी विमान के लिए सबसे मुश्किल चीज़ होती है टेकऑफ. सभी लड़ाकू विमानों का एक मैक्सिमम टेकऑफ वेट होता है. मतलब हर विमान अधिकतम एक सीमा तक वज़न लेकर ही टेकऑफ कर सकता है. इसीलिए हर मिशन के लिए लड़ाकू विमान को तैयार करते हुए विमान के कुल वज़न के आखिरी ग्राम तक गणना की जाती है. एक बार टेकऑफ हो जाए तो विमान के इंजन के पास इतनी ताकत होती है कि वो थोड़ा और वज़न ले जा सकता है. अब विमान का वज़न तो बदला नहीं जा सकता. न ही पायलट का वज़न बदला जा सकता है. तो वज़न कम या ज़्यादा करने के दो ही रास्ते बचते हैं – या तो हथियार कम-ज़्यादा करें या फिर ईंधन. तो किया ये जाता है कि विमान ज़्यादा से ज़्यादा हथियार लेकर टेकऑफ करता है. लेकिन ईंधन कम ही लेता है. एक बार सुरक्षित टेकऑफ हो जाए, उसके बाद आसमान में जाकर ईंधन भर लिया जाता है. ऐसा तब किया जाता है जब किसी ऐसे मिशन पर जाना हो जिसमें रेंज की बहुत बड़ी भूमिका होने वाली हो. हवा में इस तरह से फ्यूल भरने को ‘एरियल रिफ्यूलिंग’ करते हैं.

मैक्सिमम टेकऑफ वहां अहम हो जाता है, जहां हवा पतली होती है. मिसाल के लिए लद्दाख, जो कि काफी ऊंचाई पर स्थित है. ऐसे में विमान का मैक्सिमम टेकऑफ वेट घट जाता है. ऐसी स्थिति में ये बहुत ज़रूरी होता है कि विमान कम से कम ईंधन लेकर हवा में पहुंचे. और फिर वहां किसी तरीके से ईंधन भर ले. अब समझते हैं कि ये किया कैसे जाता है.

कैसे होती है एरियल रिफ्यूलिंग

एरियल रिफ्यूलिंग जैसी प्रक्रिया को सही तरह से पूरा करने के लिए एक पूरा प्रोटोकॉल तैयार किया गया है. इस काम को बहुत सलीके से तय सिलसिलेवार प्रोटोकॉल के साथ किया जाता है.

  • सबसे पहले यह तय होता है कि हवा में किस लोकेशन पर फ्यूलिंग होगी.
  • उसके बाद फ्यूलिंग की शुरुआत के बिंदु और उसके खत्म होने के बिंदु को तय किया जाता है.
  • यह एक तगड़ी टाइम लाइन है जिसे फ्यूल देने वाला जहाज (टैंकर एयरक्राफ्ट या एरियल रिफ्यूलिंग एयरक्राफ्ट) और फ्यूल लेने वाला रिसीवर एयरक्राफ्ट फॉलो करते हैं.
  • इस सिस्टम को स्मूद बनाए रखने के लिए पायलट घंटो विमान उड़ा कर फ्यूल प्रोटोकॉल की प्रैक्टिस करते हैं. एरियल रिफ्यूलिंग पायलट की ट्रेनिंग का एक खास हिस्सा होता है. बेहतरीन पायलट ही इसे पूरा कर पाते हैं.
  • कहने का मतलब यह कि एरियल रिफ्यूलिंग के लिए जहाज उड़ाने वाले पायलट को बहुत कुशल होना होता है.

कितने तरीके से होती है एरियल रिफ्यूलिंग

  1. प्रोब एंड ड्रोग मेथड
  2. फ्लाइंग बूम सिस्टम

प्रोब एंड ड्रोग मेथड

  • सबसे पहले टैंकर और रिसीवर एयरक्राफ्ट एक हवा में एक खास जगह पर पहुंचते हैं.
  • इसेक बाद एक पाइपनुमा होज टैंकर एयरक्राफ्ट के पिछले हिस्से से निकलता है और और पीछे आ रहे रिसीवर एयरक्राफ्ट की तरफ बढ़ता है. फ्यूल लेने वाला जहाज़ टैंकर से थोड़ा नीचे उड़ता है.
  • रिसीवर एयरक्राफ्ट अपने इन-फ्लाइट रिफ्यूलिंग प्रोब को उस पाइपनुमा होज के छोर पर छन्नी जैसे दिखने वाले ड्रोग (या बास्केट) में फिट कर देता है.
  • इसी के साथ रिफ्यूलिंग शुरू हो जाती है.
  • रफाल में प्रोब एंड ड्रोग मेथड के जरिए ही रिफ्यूलिंग का सिस्टम है.

रफाल के सामने जो एक कोण पर तिरछा पाइप निकला हुआ है, वो रिफ्यूलिंग प्रोब ही है. ऐसा ही प्रोब मिराज 2000 और तेजस के एफओसी (फाइनल ऑपरेशनल क्लीयरेंस) वेरिएंट में लगा है. कुछ लड़ाकू विमानों में प्रोब विमान में छुपा रहता है. वो तब ही बाहर निकलता है, जब ईंधन लेना हो. ऐसे प्रोब सुखोई 30 MKI में लगे हुए हैं.

फ्लाइंग बूम सिस्टम

  • इसमें फ्यूल लेने वाला जहाज टैंकर के तकरीबन नीचे आकर फ्यूल लेता हैं.
  • हवा में एक निश्चित लोकेशन पर पहले टैंकर एयरक्राफ्ट पहुंच जाता है.
  • फिर नीचे से एक निश्चित दूरी बना कर (तकरीबन 1000 फीट) रिसीवर एयरक्राफ्ट करीब आता है.
  • जब विमान बिलकुल पास आ जाते हैं, टैंकर से एक नॉज़ल नीचे की तरफ रिसीवर एयरक्राफ्ट की तरफ बढ़ती है. ये एक भी पाइप ही होता है. बस लचीला नहीं होता. इसीलिए इसे बूम कहते हैं.
  • दोनों ही एयरक्राफ्ट अपनी पोजिशन को स्थिर बनाए रखते हैं.
  • नोजल के रिसीवर एयरक्राफ्ट के फ्यूल टैंक में फिट होते ही रिफ्यूलिंग शुरू हो जाती है.
  • एफ16, एफ 22 रैप्टर और ज़्यादातर अमेरिकी लड़ाकू विमानों में इस तरह से ही रिफ्यूलिंग होती है.

दोनों तरह की रिफ्यूलिंग में काम मिनिटों में पूरा हो जाता है. विमान एक बार में जितना ईंधन लेकर चलते हैं, उससे वो अधिकतम 3-4 घंटे उड़ पाते हैं. लेकिन अगर उन्हें इस तरह हवा में ईंधन दिया जाए तो वो 7-8 घंटे (या फिर इससे भी ज़्यादा) तक लगातार उड़ते रह सकता है. इसीलिए एयरियल रिफ्यूलिंग एक बेहद उपयोगी तकनीक है, जिसका इस्तेमाल दुनिया भर की वायुसेनाएं करती हैं.

आग क्यों नहीं लगती?

एविएशन टरबाइन फ्यूल (केरोसीन) जो कि लड़ाकू विमानों में डलता है, वो बेहद ज्वलनशील होता है. ऐसे में आपके मन में सवाल आ सकता है कि कभी रिफ्यूलिंग के दौरान कोई चिंगारी निकले तब तो धमाका ही हो जाए. लेकिन इंजीनियरों ने इसका समाधान भी निकाला. हम सब जानते हैं कि धमाके के लिए चाहिए आग और आग के लिए चाहिए ऑक्सीजन. ऑक्सीजन नहीं तो आग नहीं. इसी सूत्र को पकड़ते हुए इंजीनियरों ने ये इंतज़ाम किया कि टैंकर से जो बूम या ड्रोग निकलती है, उसके इर्द-गिर्द नाइट्रोजन की एक फुहार छोड़ी जाती है. ये ईंधन तक ऑक्सीजन नहीं पहुंचने देती. अब आप जानते हैं कि नाइट्रोजन ज्वलनशील नहीं होती. और इस तरह ईंधन लेने के दौरान हादसों की संभावना कम हो जाती है. लेकिन इन फ्लाइट रिफ्यूलिंग तब भी एक बेहद जोखिमभरा काम है. और हादसों की आशंका हमेशा होती है.

तीसरी तरह की एरियल रिफ्यूलिंग

ये एरियल रिफ्यूलिंग की अत्याधुनिक तकनीक है. इसमें लड़ाकू विमान में ही एरियल रिफ्यूलिंग का इंतज़ाम भी होता है. तो एक लड़ाकू विमान साथ उड़ रहे लड़ाकू विमान को अपने पास से ही इंधन दे सकता है. ये तरीका ऐसी जगहों पर काम आता है, जहां टैंकर ले जाना सुरक्षित नहीं होता. टैंकर एक बड़ा जहाज़ होता है, इसीलिए आसानी से दुश्मन के रडार की पकड़ में आ सकता है. तो दुश्मन की मौजूदगी वाली जगहों पर टैंकर न ले जाकर बडी रिफ्यूलिंग तकनीक से काम लिया जाता है. रफाल और सुखोई 30 एमकेआई में ये सुविधा है. कई अमेरिकी लड़ाकू विमान जैसे एफ 18 सूपरहॉर्नेट में भी ये सुविधा है.

आशा है आपको इससे काफी जानकारी मिली होगी। अगर ऐसा है तो इसके लिए धन्यवाद।